Emergency in India | National Emergency in India | आपातकाल | भारत में आपातकाल
Emergency in India
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र जनता के लिए, जनता का और जनता के द्वारा किया जाने वाला शासन है। जनता इसके लिए अपने प्रतिनिधि चुनती है, जो जनता से ताकत लेकर देश चलाती है। लेकिन जब जनता द्वारा चुनी गई सरकार ही निरंकुश हो जाए और सारे संवैधानिक उपायों को ताक पर रखकर अधिनायकवादी बन जाए तो स्पष्ट है कि देश में अराजकता आ ही जाएगी।
भारत में 1975 ई० में ऐसा ही हुआ जब सत्ता ना छोड़ने के मोह और अपने को सबसे ताकतवर मानकर इंदिरा गांधी जी ने देश में आपातकाल लागू कर दिया। यह भारतीय लोकतंत्र की बुनियाद पर सबसे गहरी चोट थी। आपातकाल के दौरान जनता पर कई जुल्म ढाए गए साथ ही प्रेस की आजादी को भी जबरन चुप करा दिया गया। आपातकाल को भारत में लोकतंत्र के इतिहास में काले अध्याय के रूप में याद किया जाता है।
लेकिन आपातकाल को याद रखना भी बहुत जरूरी है ताकि हमें यह मालूम रहे कि कैसे संविधान को ही हथियार बनाकर जनता के खिलाफ इस्तेमाल किया गया, और कैसे हमने इस स्थिति से पार पाया।
आज का हमारा लेख Emergency in India (आपातकाल) के उस काले दौर पर आधारित है। इसके साथ ही हम इस लेख के माध्यम से आपको बताएंगे इमरजेंसी के दौरान और उसके बाद संविधान में हुए बदलाव के बारे में। Emergency in India
राष्ट्रीय आपातकाल
National Emergency 1975
Why Emergency is Declared?
National Emergency in India
National Emergency in India | भारत में आपातकाल
25 जून 1975 की रात को देश में आपातकाल लगाया गया। इस घटना को भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय माना जाता है। यह आजादी के बाद की बड़ी राजनीतिक घटनाओं में से एक है। आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया और देश को एक बड़े जेलखाने में तब्दील कर दिया गया।
26 जून 1975 की सुबह ऑल इंडिया रेडियो पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की आवाज में संदेश प्रसारित हुआ। जिसमें उन्होंने कहा : “भाइयों और बहनों राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है लेकिन इससे सामान्य लोगों को डरने की आवश्यकता नहीं है।” इसके साथ ही देश में आपातकाल का दौर शुरू हुआ। इसका प्रावधान देश में आंतरिक शांति से निपटने के लिए भारतीय संविधान की धारा 352 के तहत किया गया है। लोगों के मौलिक अधिकार निरस्त कर दिए गए, देशभर में प्रेस सेंसरशिप लगा दी गई।
इंदिरा गांधी जी का रेडियो संदेश प्रसारित होने से पहले 25 जून की रात को देश में आपातकाल लागू करने का फैसला हो चुका था। आधी रात को ही प्रधानमंत्री ने तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से इस फैसले पर दस्तखत करवा लिए थे। आपातकाल लागू होते ही विपक्ष के तमाम नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। आपातकाल 21 मार्च 1977 तक जारी रहा।
इन 21 महीनों के समय को भारतीय लोकतंत्र के सबसे बुरे काल में गिना जाता है। 25 जून 1975 की आधी रात को देश में आपातकाल लगाया गया, लेकिन इससे पहले देश में राजनीतिक गहमागहमी का माहौल था। बढ़ती बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ तमाम विपक्ष सड़कों पर उतर चुकी थी।
जनता लोकनायक जयप्रकाश नारायण के पीछे लामबंद हो रही थी। गुजरात और बिहार से शुरू हुआ आंदोलन देशभर में फैलने लगा था। इंदिरा गांधी के सलाहकारों ने उन्हें इस आंदोलन से सख्ती से निपटने की सलाह दी। उनसे कहा गया कि अगर सख्ती नहीं दिखाई गई तो उनकी सत्ता को खतरा है। Emergency in India
Why Emergency is Declared? आपातकाल क्यों लगाया गया?
Emergency in India
1971 में लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी जी की रायबरेली सीट (कांग्रेस पार्टी) से जीत हुई, उन्होंने विपक्ष के उम्मीदवार राजनारायण को पराजित किया। चुनाव में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के आरोप लगे इसमें राजनारायण विपक्षी पार्टी प्रत्याशी अदालत गए।
12 जून 1975 ई० को हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का निर्वाचन रद्द कर दिया और उनके अगले 6 साल तक चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी। मामला सुप्रीम कोर्ट गया, 24 जून को सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया और सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर मुहर लगा दी लेकिन इंदिरा गांधी जी को प्रधानमंत्री बने रहने की छूट दी। वह लोकसभा में जा सकती थी लेकिन वहां वोट नहीं कर सकती थी।
जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण ने ऐलान किया कि अगर 25 जून को इंदिरा गांधी अपना पद नहीं छोड़ेंगी तो अनिश्चितकालीन देशव्यापी आंदोलन किया जाएगा। दिल्ली की रामलीला मैदान से जेपी ने रामधारी सिंह दिनकर की कविता सिंहासन खाली करो कि जनता आती है इसको नारे की तरह इस्तेमाल किया।
उन्होंने कहा कि:- ” मुझे गिरफ्तारी का डर नहीं है और मैं इस रैली में भी अपने उस आह्वान को दोहराता हूं, ताकि कुछ दूर संसद में बैठे लोग भी सुन ले। मैं आज फिर सभी पुलिसकर्मियों और जवानों का आह्वान करता हूं कि इस सरकार के आदेश नहीं माने क्योंकि इस सरकार ने शासन करने की अपनी वैधता खो दी है। “ – जयप्रकाश नारायण
25 जून 1975 शाम होते-होते सत्ता के गलियारों में गहमागहमी बढ़ गई। इंदिरा गांधी ने अपने सलाहकारों से मंत्रणा के बाद आंतरिक उपद्रव की आशंका के मद्देनजर आपातकाल लगाने का फैसला किया। आधी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आंतरिक आपातकाल लगाने का फरमान जारी करवा लिया गया।
25 जून की शाम को तमाम अखबारों के दफ्तरों की बिजली काट दी गई। इसके 21 महीने बाद अर्थात 21 मार्च 1977 को आपातकाल हटाया गया। आपातकाल लागू करने का फैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। इसके बाद वे चुनाव में कांग्रेस की सबसे बड़ी हार हुई और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। Emergency in India
National Emergency 1975 | राष्ट्रीय आपातकाल 1975
आपातकाल के दौरान जनता ने अपनी आजादी के सबसे बुरे दौर को देखा, देश में इस दौरान ना केवल चुनाव पर रोक लगा दी गई बल्कि नागरिकों के बुनियादी अधिकारों को भी खत्म कर दिया गया। जनता के सभी मौलिक अधिकारों को स्थगित कर दिया गया। सरकार विरोधी भाषण और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी गई थी। Emergency in India
आपातकाल के दौरान देश और समाज पर असर :-
इमरजेंसी की घोषणा के बाद इसका नकारात्मक असर समाज के हर क्षेत्र में देखने को मिला। आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी विरोधी दल के नेताओं को गिरफ्तार कर, अज्ञात स्थानों पर जेल में बंद कर दिया गया। सरकार ने मीसा (MISA) अर्थात मेंटेनेंस ऑफ इंटरनेशनल सिक्योरिटी एक्ट के तहत नेताओं की गिरफ्तारी की। विपक्षी दलों के सभी बड़े नेताओं मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडिस, जयप्रकाश नारायण को जेल भेज दिया गया। चंद्रशेखर जो कांग्रेस कार्यकारिणी के निर्वाचित सदस्य थे, उन्हें भी गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।
इस दौरान ऐसा कानून बनाया गया जिसके तहत गिरफ्तार हुए व्यक्ति को कोर्ट में पेश करने और जमानत मांगने का भी अधिकार नहीं था। नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना उनके रिश्तेदारों, मित्रों और सहयोगियों तक को नहीं थी। जेल में बंद नेताओं को किसी से भी मिलने की अनुमति नहीं थी। उनकी डाक तक सेंसर होती थी, और मुलाकात के दौरान खुफिया अधिकारी मौजूद रहते थे। कह सकते हैं कि देश को पूरी तरह एक जंगल बना दिया गया था।
आपातकाल के दौरान पुलिस अत्याचार और तमाम बातें बढ़ने लगी। इस दौरान पुरुष और महिला बंदियों के साथ अमानवीय अत्याचार किया गया। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी को सबसे पहले राज नारायण के मुकदमे पर हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम आदेश का निपटारा करना था। इसलिए इन फैसलों को पलटने वाला कानून लाया गया। इसके लिए संविधान को संशोधित करने की कोशिश भी की गई। Emergency in India
आपातकाल के दौरान संविधान का 42 वा संशोधन किया गया जिसके तहत संविधान के मूल ढांचे को कमजोर करने उसकी संघीय विशेषताओं को नुकसान पहुंचाने और सरकार के तीनों अंगों के संतुलन को बिगाड़ने की कोशिश की गई। आपातकाल के शुरुआत में ही संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को निलंबित कर दिया गया। ऐसा करके सरकार ने कानून की नजर में सब की बराबरी जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के भीतर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को रोक दिया।
जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया इसके तहत अभिव्यक्ति की आजादी, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को भी छीन लिया गया। आपातकाल लगते ही अखबारों पर सेंसरशिप लगा दी गई। अखबारों और समाचार एजेंसियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने नया और कठोर कानून बनाया। सरकार ने चारों समाचार एजेंसी पीटीआई, यू एन आई, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती को खत्म कर एक नई समाचार एजेंसी बना दी। इसके साथ ही प्रेस के लिए आचार संहिता की घोषणा कर दी गई। कई संपादकों को सरकार के विरोध में लिखने पर गिरफ्तार कर लिया गया।
आपातकाल के दौरान अमृत नाहटा की फिल्म किस्सा कुर्सी का को जब्त कर लिया गया। किशोर कुमार जैसे गायकों को काली सूची में डाल दिया गया। और आंधी फिल्म पर पाबंदी लगा दी गई।
आर्थिक मोर्चे पर भी आपातकाल का काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ा। इस दौरान आर्थिक नीति में मनचाहा परिवर्तन और श्रमिकों के बुनियादी अधिकारों को खत्म करने की कोशिश की गई। इस दौरान जहां कहीं भी मजदूर हड़ताल हुई, वहां उन्हें कुचलने की कोशिश की गई।
आपातकाल के दौरान नागरिक अधिकारों की रक्षा करने वाले वकीलों और जजों को भी नहीं बक्शा गया।
आपातकाल के सबसे बुरे प्रभाव में से एक था परिवार नियोजन के लिए अध्यापकों और छोटे कर्मचारियों पर की गई सख्ती। लोगों का जबरदस्ती परिवार नियोजन किया गया। परिवार नियोजन और सुंदरीकरण के नाम पर आम लोगों को काफी उत्पीड़न हुआ।
आपातकाल में अफसरशाही और पुलिस को जो अनियंत्रण अधिकार मिले थे, उनका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया। हालांकि इस दौरान प्रचार किया गया कि इमरजेंसी के दौरान भ्रष्टाचार कम हुआ, लोगों में अनुशासन आया, समय पर काम होने लगे लेकिन दो-तीन महीने बाद ही हालात पहले से भी ज्यादा खराब हो गए।
इमरजेंसी ने आम लोगों के जीवन को पूरी तरह प्रभावित किया। आपातकाल के विरोध में लोगों का आक्रोश तब फूटा, जब 1977 के आम चुनाव में जब जनता ने एकजुट होकर इंदिरा गांधी सरकार को हरा दिया और लोकतंत्र में अपनी आस्था का सबूत दे दिया। Emergency in India
Emergency in India
आपातकाल और संविधान
1975 में आपातकाल लागू करने के बाद संविधान में ऐसे संशोधनों का दौर शुरू हो गया जिन्होंने भारतीय गणतंत्र की आत्मा को ही बदल कर रख दिया। इनमें 42 वा संविधान संशोधन बेहद महत्वपूर्ण था, जिससे संविधान में व्यापक बदलाव किये गए। हालांकि 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार आई तो 43वें और 44वें संशोधन के जरिये आपातकाल के दौरान संविधान में किए गए ज्यादातर बदलावों को लग उलट दिया गया। संविधान की आत्मा को बचाने के भरपूर प्रयास किए गए।
आपातकाल और इसको लागू करने के को लेकर भारतीय संविधान में अलग से प्रावधान किया गया है। भारतीय संविधान के भाग 18 में अनुच्छेद 352 से लेकर 360 के बीच आपातकाल की चर्चा की गई है।आपातकाल में संविधान में शामिल शक्तियों का बहुत अधिक दुरुपयोग किया गया। आपातकाल को समय की जरूरत बताते हुए इंदिरा गांधी ने उस दौर में लगातार कई संविधान संशोधन किए।
जुलाई 1975 में 38 वें संविधान संशोधन के जरिए न्यायपालिका से आपातकाल की न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार छीन लिया गया। 2 महीने बाद ही किए गए 39 वें संविधान संशोधन के जरिए राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा के अध्यक्ष के निर्वाचन को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर कर दिया गया। 40वें और 41वें संविधान संशोधन के जरिए संविधान के कई प्रावधानों को बदलने के बाद 42 वा संविधान संशोधन किया गया।
42 वें संशोधन के जरिए एक प्रकार से पूरे संविधान का पुनरीक्षण किया गया। और संविधान में बहुत से मूलभूत बदलाव किए गए। 42 वें संशोधन के सबसे विवादास्पद प्रावधानों में से एक एक था- मौलिक अधिकारों की तुलना में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को वरीयता देना। इस प्रावधान के कारण किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों तक से वंचित किया गया। यह संसोधनों ने न्यायपालिका को पूरी तरह से बौना कर दिया था। विधायिका को अपार शक्तियाँ दे दी गई थी। अब केंद्र सरकार को यह भी शक्ति थी कि वह किसी भी राज्य में कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर कभी भी सैन्य, पुलिस बल भेज सकते थे। साथ ही राज्यों के कई अधिकारों को केंद्र के अधिकार क्षेत्र में डाल दिया गया था।
42 वें संशोधन के जरिए यह प्रावधान किया गया कि संसद के लिए एक संविधान संशोधन को किसी भी आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी।
लोकसभा का कार्यकाल भी 5 साल से बढ़ाकर 6 साल का कर दिया गया था। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो आपातकालीन शक्तियों के दुरुपयोग पर अंकुश लगाने की आवश्यकता महसूस हुई।
44 वा संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के जरिए आपातकालीन प्रावधानों के दुरुपयोग को रोकने की व्यवस्था की गई। हालांकि इससे पहले ही 43वें संविधान संशोधन में सुप्रीम कोर्ट व हाईकोर्ट के अधिकार वापस लाए गए। इसके बाद संविधान का 44 वा संशोधन हुआ यह संशोधन 42वें संविधान संशोधन से जो क्षति संविधान को हुई थी उसे ठीक करने की कोशिश थी। 44 वें संविधान संशोधन से 42 वें संशोधन के जरिए संविधान में किए गए बदलावों को रद्द करके संविधान को फिर से अपने मूल रूप में लाया गया।
संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकार से हटाकर वैधानिक अधिकार बना दिया गया। 44वें संशोधन ने संविधान में कई ऐसे बदलाव किए, जिससे 1975 के आपातकाल जैसी स्थिति दोबारा उत्पन्न ना हो।
पहले अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल लगाने के लिए युद्ध, बाहरी आक्रमण, आंतरिक अशांति जैसी स्थितियों का होना जरूरी था। लेकिन 44वें संशोधन में अनुच्छेद 352 में से आंतरिक अशांति शब्द हटा दिया गया और इसकी जगह सशस्त्र विद्रोह शब्द जोड़ा गया। अब युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह होने पर ही आपातकाल लागू किया जा सकेगा। सिर्फ आंतरिक अशांति के नाम पर आपातकाल घोषित नहीं किया जाएगा। वर्तमान में यही व्यवस्था लागू है।
42 वें संशोधन के जरिए आपातकाल की घोषणा को न्यायिक समीक्षा से बाहर कर दिया गया था लेकिन 44 वें संशोधन से यह बंधन हटा लिया गया। अब सरकार के आपातकाल लगाने के फैसले को कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है। यह भी व्यवस्था की गई है कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा करेंगे जबकि मंत्रिमंडल लिखित रूप में राष्ट्रपति को ऐसा परामर्श दें कि आपातकाल की घोषणा के 1 महीने के भीतर संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत से इसके लिए मंजूरी देना जरूरी बनाया गया। इसे लागू रखने के लिए हर 6 महीने के बाद संसद से मंजूरी आवश्यक होगी।
लोकसभा के कार्यकाल को दोबारा 5 साल कर दिया गया और मौलिक अधिकारों को कभी भी खत्म नहीं किया जा सकता। 38 वें संविधान संशोधन के जरिए इंदिरा गांधी ने अनुच्छेद 123 में खंड 4 जोड़कर अध्यादेश के मामले में न्यायिक हस्तक्षेप को रोक दिया। हालांकि जनता पार्टी की सरकार ने 44 वें संशोधन के जरिए इस बदलाव को उलट दिया। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने 368 में भी बदलाव किया था ताकि संविधान में किए गए बदलाव की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सके।
आपातकाल के दौरान किए गए 42वें संविधान संशोधन के जरिए संविधान की प्रस्तावना, 53 अनुच्छेदों और सातवीं अनुसूची में बदलाव किया गया था। यह एक प्रकार से संविधान का पुनरीक्षण था। हालांकि जनता पार्टी की सरकार ने 43वें और 44वें संविधान संशोधन के जरिए संविधान में जो बिगड़ा हुआ था उसे सुधारने की भरपूर कोशिश की।
आपातकाल भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास के काले अध्याय के तौर पर याद किया जाता है। और हमेशा याद किया जाता रहेगा। यह दौर दरअसल भारतीय लोकतांत्रिक मर्यादाओं की परीक्षा की घड़ी भी थी। आपातकाल के दौर ने हमारे सामने कुछ सबक भी रखे जो हमेशा याद किए जाते रहेंगे।
आपातकाल के 21 महीनों में इंदिरा गांधी बेहद ताकतवर सत्ताधीश बनी रही लेकिन इसके खिलाफ उठी आवाजों ने जल्द ही यह भारतीय लोकतंत्र में अधिनायकवाद के सिद्धांत को पूरी तरह से खारिज कर दिया। जानकार जनता की शासन व्यवस्था मैं अधिनायकवाद ही हार को आपातकाल का सबसे बड़ा सबक करार दिया है।
आपातकाल ने राजनीतिक तौर पर देश के सामने एक बड़ा सबक यह भी रखा की आपातकाल के बाद ही देश में पहली गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। यह किसी एक दल की सरकार नहीं थी बल्कि जनता के द्वारा ही समर्थित उस विपक्ष की सरकार थी जिसका दमन करने के लिए ही इंदिरा गांधी ने आपातकाल को हथियार बनाया था। इमरजेंसी से पहले हुए चुनाव अर्थात 1971 में इंदिरा गांधी को भारी बहुमत मिला था। उनके साथ बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में पाकिस्तान को बुरी तरह परास्त कर भारत का सर ऊंचा करने की उपलब्धि थी। Emergency in India
घरेलू स्तर पर गरीबी हटाओ जैसे नारों से उनकी लोकप्रियता भी सातवें आसमान पर थी। लेकिन 1974 आते-आते सब कुछ बदल गया इंदिरा गांधी जी को आपातकाल लगाकर अपनी सत्ता बचानी पड़ी। इस दौरान हुए जुल्मों से जनता का गुस्सा और बढ़ गया और आखिरकार 1977 में इंदिरा गांधी बुरी तरह से हार गयी। राजनीतिक दृष्टि से ये दौर यह सब भी देता है की उपलब्धि और लोकप्रियता के तमगे के बावजूद अगर जनता की उम्मीदों पर सरकार खरी नहीं उतरती है तो बड़े से बड़ा दांव भी उल्टा पड़ जाता है।
लोकतंत्र में जनता की इसी शक्ति को राजनेता हमेशा याद रखते हैं। आपातकाल के दौरान देश में क्रूर कानून के दम पर जनता के अधिकारों का दमन चलता रहा मीसा और डिफेंस ऑफ इंडियन रूल यानी डी आई आर के बहाने राजनीतिक विरोधियों और आलोचकों को जेल भेजने का अधिकार सत्ता को मिलता रहा। लेकिन 1970 में चुनाव के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो 43वें संशोधन के जरिए सर्वोच्च और उच्च न्यायालय को उनके अधिकार वापस दिलाए गए।
संविधान का 44वा संशोधन हुआ इसके जरिए संविधान फिर से अपनी मूल अवस्था में आ गया। कुल मिलाकर यह दौर सबक भी देता है कि निरंकुश सत्ता अपने अधिकार के गलत इस्तेमाल से अगर संविधान की मूल भावना में बदलाव करती है तो जनता अपनी शक्ति से संविधान को भी संरक्षित करने का माद्दा रखती है।
आपातकाल के इस दौर में निष्पक्ष पत्रकारिता की भी खूब परीक्षा ली। आज के पत्रकारों के लिए भी आपातकाल किसी सबक से कम नहीं है। ज्यादातर मीडिया संस्थान के झुक जाने के बावजूद जनता की आवाज नहीं दब पाई और आज भी उन पत्रकारों और मीडिया समूह को सम्मान के साथ याद किया जाता है। जिन्होंने सत्ता के आगे घुटने टेकने के बजाय सत्ता से टकराने का साहस दिखाया। पत्रकारिता का स्वरूप हर दौर के लिए एक सबक के साथ ही मिसाल के तौर पर भी याद किया जाता है। Emergency in India
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